ये अजीब सी उलझन आ पड़ी है,
यहाँ मजहब रिश्तों की उम्र तय कर रही है।
कोई राम तो, कोई रहीम को मान रहा है,
पर नही कोई इंसान को मान रहा है।
यहाँ राह मे कोई भूखा पड़ा है,
और कोई तस्वीरों के लिए रोटी बाँट रहा है।
गरीबी यहाँ कैंसर की तरह फैली हुई है,
और नेताओं की ईमानदारी मैली हुई है।
किसी को खाना फेंकने से फुर्सत कहाँ है?
और कोई यहाँ भूखा सो रहा है।
ये लड़ाई अब खुद से लड़नी पड़ रही है,
क्योंकि अब मजहब रिश्तों की उम्र तय कर रही है।
~सुब्रत सौरभ